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सुकून से चाय पी लो मैडमजी!

workoholic

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चाय पी लो मैडमजी! ठंडी हो रही है।’ नौकर ने चाय रखकर आवाज लगाई। लेकिन सुधा हमेशा की तरह सुधबुध खोए अपने लेपटॉप पर जूझ रही थी। ऑफिस के कुछ जरूरी स्टेटमेंट जो तैयार करने थे। चाय ठंडी हो गई। ऎसे ही सुधा का खाना भी ठंडा हो जाता है। यह उसका रोजाना का रूटीन बन गया है। ऑफिस तो ऑफिस घर में भी वह इसी तरह वर्कोहोलिज्म की शिकार हो गई है। कहीं सुधा की तरह आप भी काम के नशे में खुद को और अपने परिवार को अनदेखा तो नहीं कर रहीं! खुद से सवाल पूछिए, आप काम के लिए जी रही हैं या जीने के लिए काम कर रही हैं

क्या आप भी उन लोगों में शुमार हैं, जो काम करते वक्त पूरी दुनिया से बेखबर रहते हैं क्या काम के सिलसिले में मोबाइल फोन चौबीसों घंटे आपके कान पर चिपका रहता है और आप खाना-पीना भी भूल जाते हैं तो जनाब संभल जाइए, आप वर्कोहोलिक पर्सन बनते जा रहे हैं। आपके और आपके परिवार के लिए ये शुभ संकेत नहीं हैं, तो पहले ही सावधान हो जाएं।

काम का नशा इंसान पर किस कदर हावी है, इसे जांचने के लिए 300 कर्मचारियों पर एक सर्वे किया गया। जिसमें पाया गया कि 51 फीसदी व्यक्ति छुट्टी के दिनों में, 46 फीसदी ड्राइव करते समय और 29 फीसदी खाना खाते समय भी काम करते हैं। 37 फीसदी को यह याद नहीं कि उन्होंने आखिरी बार कब काम से छुट्टी ली थी। 18 फीसदी ने यह माना कि वे बाथरू म में भी काम संबंधी ई मेल और फाइल पढते हैं। 66 फीसदी रात में, 47 फीसदी परिवार को दिए जाने वाले समय पर में काम करते हैं।

‘काम में डूबने से आप सारे गम भूल जाते हैं,
पर ऎसा न हो कि आप खुद को भूल जाएं।’
-डेल कारनेगी

‘चेन्ड टू द डेस्क’ के लेखक ब्रायन रॉबिंसन का कहना है कि वर्कोहोलिज्म आज की सबसे बडी समस्या है। आधुनिक तकनीकों से इंसान को सहूलियतें तो बढी हैं, पर वह इनमें उलझकर रह गया है। हम ‘फार्मर टाइम’ से ‘फैक्ट्री टाइम’ में तो आ चुके हैं, पर हमारी सोच नहीं बदली है। अध्ययन बताते हैं कि जो पत्नियां एक हफ्ते में 40 घंटे से ज्यादा काम करती हैं, उनके पति की सेहत में 25 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। कई ऎसे लोग भी हैं, जो सालों से लगातार काम करते रहने की वजह से पीठ के दर्द और आंखों की रोशनी की समस्या से जूझने लगते हैं। शुरूआत में लगातार काम करने में मजा आता है, पर इसके दुष्परिणाम बाद में ही पता लग पाते हैं। लगातार कंप्यूटर पर काम करने वाले लोगों पर किए गए शोध बताते हैं कि उन्हें कई तरह के शारीरिक और मानसिक डिस्ऑर्डर्स का सामना करना पडता है। ‘वर्किग अवरसेल्व्स टू डेथ’ के लेखक डायने फास्सेल काम के नशे को तीन श्रेणियों में बांटते हैं- 1. काम में बारे में हमेशा सोचते रहना 2. सामाजिक रिश्तों से दूर भागना 3. पीठ दर्द, सिर दर्द, उच्च रक्तचाप और अवसाद जैसे बीमारियों में घिर जाना। उनके मुताबिक लगातार काम करने वाले लोगों को खुद से पूछना चाहिए कि वे काम में इतना क्यों डूब रहे हैं वे हर काम तुरंत निपटाना चाहते हैं और बस भागे जा रहे हैं। इसका सही जवाब ही उनके लिए उपचार का काम कर सकता है। समझदारी इसी में है कि काम का आनंद लें, अंधाधुंध काम करते रहने से आपमें और किसी मशीन में कोई फर्क नहीं रह जाएगा।
‘खुशी रामबाण औषधि है,

इसके मायने न भूलें।’ -स्वेट मार्डेन
आज के डिजिटल युग में सेलफोन और ई मेल ने कहीं भी और कभी भी काम करने की सुविधा दे दी है, जो आपके अपनों के लिए असुविधा का पर्याय बनती जा रही है। इंसान चाहे घर पर हो, छुटि्टयों पर, किसी मांगलिक समारोह में और यहां तक कि बाथरू म में भी, फोन से उसका काम लगातार जारी रहता है। कहने का मतलब है कि उसे अपना एक सैकंड भी गंवाना मंजूर नहीं होता। लेकिन इन सब में वह यह भूल जाता है कि इस छोटी-सी जिंदगानी में परिवार और बच्चे उससे दूर होते जा रहे हैं। ज्यादा काम करने की इस अंधी दौड में कुछ न कुछ ऎसा कीमती है, जो बडी तेजी से हाथ से छूटता चला जा रहा है। मेहनत से काम करना और काम का नशा होना, ये दो बेहद अलग चीजें हैं। मनोवैज्ञानिकों की मानें, तो किसी और नशे की तरह ही काम का नशा भी इंसान के शारीरिक और मानसिक स्तर पर असर डालता है। रिश्तों और भावनाओं से व्यक्ति को दूर कर देता है। इससे प्रभावित व्यक्ति अपने से दूर, अपनों से दूर बस काम में ही खोया रहता है। वह खुद अपने प्यार की भावनाओं से संपर्क खो देता है। वह खुशी, प्यार और संतुष्टि इनके मायने ही भूल जाता है। वह तब भी काम करता रहता है, जब जरू रत नहीं होती। जो वक्त उसे जिंदगी की छोटी-बडी खुशी या गम में अपनों के साथ बिताना चाहिए, वह उससे भी वंचित रहता है। यह नशा जब हद से ज्यादा बढ जाता है, तो एक बीमारी की तरह हो जाता है। खुद के प्रयास, परिवार की समझ और साथ से ही इसका इलाज संभव है। वर्कोहोलिज्म यानी काम का नशा जिन्हें होता है, वे अक्सर ये समझने में नाकाम रहते हैं कि जो समय वे अपने प्यार और बच्चों का खो रहे हैं, वह वापस नहीं आएगा और वक्त आने पर उन्हें इसका पछतावा भी होगा।

‘मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है,
भविष्य की चिंता कायर बना देती है।’ -प्रेमचंद
काम काम ही रहे और नशा न बने, इसके लिए हमें जीवन के हर मोड पर सोच-समझकर, अपनी प्राथमिकताएं तय कर निर्णय लेने होंगे। जानें कैसे हम काम के नशे को काम की खुशी में तब्दील कर सकते हैं-

प्राथमिकता तय करें: आपके जीवन में क्या ज्यादा मायने रखता है, पहले यह तय करें। उसके अनुसार अपना कार्यक्रम निर्धारित करें। उदाहरण के तौर पर अगर बच्चे का जन्मदिन है, तो एक दिन पहले अधिक काम कर जरूरी चीजें निपटा लें, ताकि दूसरे दिन आप उसे अपना ज्यादा से ज्यादा समय दे सकें। इसी तरह कोई जरू री असाइनमेंट है, तो घर पर पहले से बता दें कि आपको कितना समय लग जाएगा, ताकि वे आपका इंतजार कर परेशान न हों।

सोच-समझकर निर्णय लें: थोडी-सी समझदारी से आप अपना काम भी अच्छे- से कर सकते हैं और अपनों को भी खुश रख सकते हैं। इस बात का हमेशा खयाल रखें कि आपके निर्णय से किसी को दुख न हो, कोई असुविधा न हो। अगर आपने परिवार या मित्रों के साथ कहीं जाने का प्रोग्राम बनाया है, तो उसे फोन में फीड कर लें। ताकि आप बिना किसी को नाराज किए समय पर तय जगह पहुंच सकें।

सेहत है सर्वोपरि: काम की अधिकता में कभी भी सेहत को नजरअंदाज न करें। क्योंकि शरीर स्वस्थ रहेगा, तभी हम अच्छे से काम कर पाएंगे। कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और दिमाग बसता है। और दिमाग तेज चलेगा, तभी हम अच्छे रिजल्ट्स दे पाएंगे।
आराम भी है जरू री: सबसे जरू री है आराम। नींद भी इंसान के लिए उतनी ही जरू री है, जितना काम। देर रात तक काम करना शरीर और दिमाग दोनों को ही थका देता है। जिसका प्रभाव देर से ही सही लेकिन नजर आने लगता है। इसलिए जरूरत के अनुसार आराम करें।

काम… बस काम
1. क्या आप अवकाश के दिनों में भी काम के बारे में ही सोचते हैं
अ. हमेशा ही ब. कभी-कभी स. कभी नहीं
2. क्या आप खाते समय भी पढते या काम करते रहते हैं
अ. प्राय: ब. कभी-कभी स. कभी नहीं
3. क्या आप ऑफिस के बाद भी सहकर्मियों को काम के सिलसिले में फोन करते हैं
अ. प्राय: ब. जब जरू रत हो, तभी स. कभी नहीं
4. क्या रिटायरमेंट के बारे में सोचकर ही आपको डर लगता है
अ. हां, बहुत, ब. हां, थोडा
स. नहीं, मैं तो इसका इंतजार कर रहा हूं
5. क्या आपको लगता है कि अधिकतर लोग आलसी हैं
अ. हां, ब. निर्भर करता है कि किसके बारे में बात हो रही है
स. नहीं
0-2 अंक
आप वर्कोहोलिक तो नहीं, लेकिन आपको काम की अहमियत भी नहीं पता। काम पर थोडा ध्यान केंद्रित करें।

3-6 अंक
आप काम, परिवार और खुशी के बीच बेहतर संतुलन बनाना जानते हैं।

7-10 अंक
आप जरू रत से ज्यादा काम करते हैं या यूं कहें कि आपने काम को ही अपनी जिंदगी बना लिया है। अपनी सेहत और अपने परिवार पर भी ध्यान दें।

September 9, 2009 Posted by | sunday special | , , , | Leave a comment

एक अधूरा अफसाना

वतन आजाद हुआ, तो हर शख्स ने चुन-चुनकर इसकी राहों में कुछ ख्वाब बिछाए। और जिन लोगों ने हमें आजादी की मंजिल तक पहुंचाया, उनकी भी ख्वाहिश थी कि हर ख्वाब को हकीकत में बदला जाए, हर आंख के आंसू को मुस्कान में बदला जाए……लेकिन तब से अब तक एक लंबा अर्सा गुजर चुका है…. और आज ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि यह वो मुल्क नहीं है, जिसका सपना कभी बापू या नेहरू ने देखा था या जिसके लिए हमारे वीर सिपाही हंसते-हंसते शहीद हो गए थे। क्या आजादी वाकई एक ऎसा अधूरा अफसाना है, जिसके हर लफ्ज में कोई दर्दभरी दास्तान छिपी है

इसी अहम सवाल का जवाब तलाशने के लिए आजादी की सालगिरह पर हमने तीन ऎसे लोगों को चुना, जिनका आजादी की लडाई के साथ सीधा रिश्ता रहा है। ये हंै महात्मा गांधी के पडपोते तुषार गांधी, सुभाषचंद्र बोस के पडपोते सूर्यकुमार बोस और भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन। उनके जवाब में हमें देश और समाज की एक धुंधली तस्वीर तो नजर आती है, पर साथ ही यह उम्मीद भी मौजूद है कि अगर इरादे बुलंद हों, तो कोहरे के पार एक विशाल नीले आसमान को भी हम छू सकते हैं।

बापू, सुभाष और भगत के सपनों का देश
तुषार गांधी- आजादी के बाद हमने बापू के सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए विकास का जो मॉडल अपनाया, उसने देश के भीतर ही दो देश बना दिए हैं। एक तरफ कुछ ऎसे लोग हैं, जो करोडों रूपए की बेंटले कार चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बैलगाडी चलाने वाले लोग भी हैं। लेकिन जहां पहले वर्ग की तादाद बेहद सीमित है, वहीं दूसरा वर्ग तेजी से बढ रहा है। इस खाई को पाटने के लिए हमें बापू के कहे मुताबिक शासन की नीतियां अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनानी होंगी।

सूर्यकुमार बोस- मेरा भी कुछ ऎसा ही मानना है। नेताजी सरीखे हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के सपने का भारत अभी तक नहीं बन पाया है। आतंकी हमलों से दहशत का माहौल है। राजनेता आतंकवाद पर लगाम कसने की बजाय अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने और जेब भरने में लगे हुए हैं। संसद और विधानसभाओं को तो इन्होंने अखाडा बना दिया है। सिस्टम की खामियों को देखकर मन में कभी-कभी विद्रोह का विचार आता है।

प्रो.जगमोहन-मुझे दुख तो इस बात का है कि इस बार हमारे सामने अंग्रेज नहीं, बल्कि अपने ही लोग हैं। कहने को तो भारत आजाद हो गया है, लेकिन देश के नीति-निर्माता अभी भी इसे गुलाम रखना चाहते हैं। अंग्रेजों के अपने फायदे के लिए चलाई गई परिपाटियों को हम आज तक ढोते आ रहे हैं। हम अपने शहीदों के लिए अलग से स्मारक तक नहीं बना पाए और इंडिया गेट को वह दर्जा देने की भूल करते चले जा रहे हैं।

समाज की दशा और दिशा
तुषार गांधी- बेहद शर्मनाक है कि हम अभी तक समाज से कुरीतियों को खत्म नहीं कर पाए। समाज धर्म और जाति के दुष्चक्र में फंसता चला जा रहा है। इस तरह का वैमनस्य देश की एकता और अखंडता के लिए घातक है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने समाज का यह वीभत्स रूप देखने के लिए कुर्बानी नहीं दी थी और आज हम इसी का नाम लेकर देश के टुकडे-टुकडे कर रहे हैं।

सूर्यकुमार बोस- देखिए, समाज का ताना-बाना जितना सुलझा हुआ होगा, देश उतना ही आगे बढेगा। विकास की रफ्तार को बढाने के लिए हमें बदलते वक्त के मुताबिक चलना होगा। ऎसी घटनाएं देखकर ठेस पहुंचती है कि आज इक्कीसवीं सदी में एक युवक को उन्मादी भीड ने पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाला, क्योंकि उसने अपने गौत्र की लडकी से शादी कर ली थी। समाज के ठेकेदारों को परंपराओं के नाम पर रूढियों को थोपना बंद करना चाहिए।

प्रो.जगमोहन-मैं सोचता हूं कि समाज का विकास तभी होता है, जब उसमें स्वनियंत्रण हो। पश्चिम की संस्कृति ने समाज को उन्मुक्त तो बनाया है, लेकिन कई विकारों के साथ। रिश्ते जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। इस भटकाव से समाज का पूरा ढांचा चरमरा गया है। नाउम्मीदी के बीच यह राहत की बात है कि देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों में स्थिति फिर भी ठीक है।

महिला अधिकारों की बात
तुषार गांधी- अब महिलाओं की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधरी है, लेकिन अभी लंबी लडाई लडना बाकी है। महिलाओं को शासन के स्तर पर ही नहीं, समाज के स्तर पर भी सच्ची भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है। हालांकि यह सब इतना सहज नहीं है। पीढियों से समाज के जिस तबके को अबला समझते आए हों, उसे बराबरी का दर्जा देने में जोर तो आएगा। सुकून की बात है कि महिलाएं अपने हकों को हासिल करने के लिए उठ खडी हुई हैं।

सूर्यकुमार बोस- मेरे मुताबिक देश की आबादी के आधे हिस्से को दरकिनार कर विकास के बारे में सोचना बेमानी है। आज की नारी यह साबित कर चुकी है कि वह कमजोर और लाचार नहीं है। ऎसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे नहीं गाडे हों, फिर क्यों उसे बराबरी का हक देने में आनाकानी की जा रही है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण का मामला चंद नेताओं की जिद की वजह से लंबे समय से अटका पडा है।

प्रो.जगमोहन-झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण हम सबके सामने है। उन्होंने ऎसे समय में गुलामी की जंजीरों को तोडने का हौसला दिखाया था, जब पूरा देश निराशा में डूबा हुआ था। देश में लक्ष्मीबाई आज भी हैं, बस हम उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका नहीं देते। कितने शर्म की बात है कि लोग लडकी को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का पाप करने से भी नहीं हिचकते हैं। समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए कन्या भू्रण हत्या पर जल्द से जल्द लगाम लगाना जरूरी है।

हमारा एक सपना है
तुषार गांधी- मैं तो चाहता हूं कि देश में समानता आधारित समाज की स्थापना हो। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों से भेदभाव नहीं किया जाए। यह भेदभाव समाप्त हो जाएगा तो आधी समस्याएं तो वैसे ही हल हो जाएंगी। हमें देश की ‘विविधता में एकता’ को बरकरार रखना होगा। इसके अलावा मेरा प्रयास रहेगा कि बापू से जुडी हर चीज को देश में लाया जाए, ताकि उनकी अनमोल धरोहर को नीलामी जैसी शर्मसार करने वाली प्रक्रिया से नहीं गुजरना पडे।

सूर्यकुमार बोस- इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर क्षेत्र में देश का विकास हो। यहां की प्रतिभाएं देश के विकास में अपना योगदान दें। सरकार इस तरह के इंतजाम करे कि प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन नहीं करें। युवा भी इस ओर ध्यान दें। वे महज ऊंचे वेतन के आकर्षण में अपना वतन नहीं छोडें। यदि मजबूरी में बाहर जाना भी पडे, तो अपनी मातृभूमि को नहीं भूलें। बाहर रहते हुए भी अपने देश की तरक्की में भागीदार बनने का प्रयास करें।
प्रो.जगमोहन-आप यूं क्यों नहीं सोचते कि यदि हम शहीदों के सपनों को पूरा कर पाएं, तो देश का कल्याण तो अपने आप हो जाएगा। लोगों को यह बताने की जिम्मेदारी हमारी है कि स्वतंत्रता सेनानी देश के बारे में क्या सोचते थे। स्वतंत्रता संग्राम का आधा-अधूरा सच ही लोगों का पता है। इतिहास का यह अनछुआ पक्ष बहुत रोमांचक है। और हां, हमें आजादी की जंग में कुर्बान हुए वीरों की याद में ऎसे स्मारक को मूर्त रूप देना है जो हमारी जमीन पर, हमने ही बनाया हो।

August 17, 2009 Posted by | sunday special | , | Leave a comment

क्या ईश्वर है

environment‘टाइम’ मैगजीन ने परम सत्ता के अस्तित्व को लेकर न्यूयॉर्क में एक बहसका आयोजन किया। नब्बे मिनट तक चली इस बहस में दो वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया। बहस में ईश्वर में भरोसा न रखने वाले प्रोफेसर रिचर्ड डॉवकिन्स ने डार्विन के क्रमिक उत्पत्ति के
सिद्धांत की वकालत की। दूसरी तरफ फ्रेंसिस कॉलिन्स ने ईश्वर में पूर्ण भरोसाजताते हुए क्रिएशनिज्म यानी सृष्टि निर्माण को सही
ठहराया।

संवाददाता: प्रोफेसर डॉवकिन्स, जैसा कि आपने एक पुस्तक में लिखा है ‘जो विज्ञान को सही रूप में समझता है उसकी दृष्टि में ईश्वर मात्र एक भ्रम है-‘ क्या आप अब भी इस बात से सहमत हैं
डॉवकिन्स- सबसे पहले हमको यह जानना जरूरी है कि ईश्वर, जिन्हें लोग सर्वशक्तिमान मानते हैं, है भी या नहीं, यदि मुझसे इस प्रश्न का उत्तर पूछेंगे, तो मैं कहूंगा ईश्वर है ही नहीं।
संवाददाता: डॉ. कॉलिन्स, क्या आप कह सकते हैं कि विज्ञान के जरिए ईश्वर के अस्तित्व को समझा जा सकता है
कॉलिन्स : हां! ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं इस तथ्य को विज्ञान के जरिए कुछ हद तक समझा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ईश्वर केवल इस ब्ा्रह्मांड का ही नहीं बल्कि समस्त लोक परलोक का मालिक है। चूंकि विज्ञान का दायरा बहुत छोटा है और ईश्वर का अनंत है, इसलिए विज्ञान के द्वारा ईश्वर को पूरी तरह समझ लेना संभव नहीं है।
संवाददाता: प्रोफेसर डॉवकिन्स, क्या आपकी राय में डार्विन के ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ और सृष्टि निर्माण का ज्ञान परस्पर विरोधाभासी है

डॉवकिन्स: हां। आज आप मनुष्य का अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत अधिक विकसित मस्तिष्क और कुदरत के नजारों को देख रहे हैं, यह एक-दो दिन की घटना न होकर करोडों-अरबों वर्षों से चले आ रहे क्रमिक विकास का ही समग्र असर है। जैसा कि डार्विन के अनुसार शुरूआत में पृथ्वी पर कोई जीवन नहीं था। कालांतर में एक जीव बना और धीरे-धीरे उसी जीव से अनेक जीव-जंतु, पेड-पौधे आदि बने और धीरे-धीरे अगली पीढी में और अधिक विकसित जीव जंतु और पेड-पौधे बनते गए। डारविन ने बताया कि यह सब जीव के ‘जेनेटिक कोड’ में उपस्थित जींस में ‘म्यूटेशन’ या संरचना-परिवर्तन से संभव हो पाया। मेरी राय में इस जटिल सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया हो, यह कहना नितांत गलत और भ्रामक है।
कॉलिंस: मेरी राय में इस सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने ही किया है और डारविन के ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ भी इस तथ्य का ही तो समर्थन कर रहा है

संवाददाता: सृष्टि का निर्माण कब हुआ
कॉलिंस: देखिए। ईश्वर परम सत्ता हैं। वह किसी भी प्रकार की परिधि या समय सीमा में बंधा हुआ नहीं हो सकता। वह सृष्टि में भी व्याप्त है, तो सृष्टि के बाहर भी। मेरी राय में ब्ा्रह्मांड के निर्माण में जो क्रमिक विकास हुआ है और हो रहा है उसका निर्माता केवल और केवल ईश्वर ही हो सकता है। सृष्टि का क्रमिक विकास सर्वशक्तिमान की ही सोच का परिणाम है।
डॉवकिन्स: कॉलिंस की यह सोच एकदम निराधार है। यदि ईश्वर को सृष्टि में जीवों का निर्माण करना था, तो उसने 10 अरब वर्षों तक क्यों इंतजार किया
कॉलिंस: हम ईश्वर के द्वारा रचित साम्राज्य की रचना के तौर-तरीकों पर टीका-टिप्पणी करने वाले कौन होते हैं मेरे विचार से हम अभी तक यह समझ ही नहीं पाए कि आखिर ईश्वर ने इस संसार की रचना क्यों की है लिहाजा हमें ईश्वर द्वारा रचे गए संसार की योजना, कार्य-प्रणाली आदि के विषय में कुछ भी कहना एकदम अनुचित है। वह सर्वशक्तिमान है और अपनी मर्जी का मालिक है। वह जब चाहे और जो चाहे कर सकता है।

संवाददाता: आप दोनों द्वारा लिखी हुई बहुत सी पुस्तकों में छह या अधिक सारभौमिक स्थिरांकों (यूनीवर्सल क्वेशेंट्स्) के विषय में यह लिखा है कि यदि इनमें से किसी एक में भी हल्का सा बदलाव आ जाए, तो जीवन असंभव हो सकता है। कैसे
कॉलिंस: हम गुरूत्वाकर्षण स्थिरांक को ही लें। यदि इसका एक हजार खरबवां हिस्सा भी कम या अधिक हो जाए, तो एक बहुत बडा विस्फोट (बिग बैंग) होगा और इसके परिणामस्वरूप जीवन असंभव भी हो सकता है। परम सत्ता के अस्तित्व का यह एक बहुत बडा प्रमाण है कि उन्होंने जो संसार रचा है वह कितना जटिल है। संसार की रचना कोई सामान्य संयोग की बात नहीं है। इस रचना के पीछे कोई महान रचनाकार का हाथ है और वह ईश्वर के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकता है।
डॉवकिन्स: ईश्वर में आस्था रखने वाले लोग यह समझते हैं कि इन सारभौमिक स्थिरांकों को नियंत्रण करने वाला बटन ईश्वर के हाथ में है और वह इस बटन के द्वारा इनको नियंत्रित करता रहता है। लेकिन समस्या यह है कि जो एकदम असंभव तथ्य है उसको समझने के लिए पहले ईश्वर को तो समझे जो इससे भी अधिक असंभव तथ्य है।
कॉलिंस: मेरे लिए ईश्वर असंभव तथ्य नहीं है। वह परम सत्ता है और उसे सृष्टि या किसी अन्य निर्माण की न कोई कहानी गढनी है और न ही किसी की सहायता या सुझाव की उसे जरूरत ही है। उसके पास हर गुत्थी का हल मौजूद है।

विज्ञान को अन्य ब्रह्मांडों को खोजने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। विज्ञान के इस प्रयास से वैज्ञानिकों को यह भी ज्ञान हो सकेगा कि यह ब्रह्मांड किस प्रकार बारीकी से ट्यून किया हुआ है। लेकिन इस संसार के बाहर के काल्पनिक संसार का कोई धणीधोरी नहीं है। इस बात से मैं कतई सहमत नहीं हूं। यदि कोई आपसे पूछे कि मैं कौन हूं मैं यहां क्यों और कहां से आया हूं मृत्यु के पश्चात क्या होगा क्या ईश्वर है आदि उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर आप ठीक से तभी दे पाएंगे जब आप खुले दिमाग से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करेंगे।
संवाददाता: क्या ईश्वर है

डॉवकिन्स: मेरी समझ के मुताबिक यह महान, अविश्वसनीय, अगम्य और वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान से परे है।
कॉलिंस: आप एकदम ठीक समझे, विज्ञान के आगे के ज्ञान को ही ईश्वर कहते हैं।
संवाददाता: चमत्कारों पर विश्वास करना विज्ञान के सिद्धांतों पर कुठाराघात नहीं है
कॉलिंस: बिलकुल नहीं। मेरे विचार में विज्ञान और ईश्वर के प्रति आस्था एक स्थान पर परस्पर एक दूसरे को छूते हैं और यहां पर किसी चमत्कार को ईश्वरीय कृपा मानने के लिए किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है।
डॉवकिन्स: आपके यह विचार तो विज्ञान के नियमों के प्रति आंख मूंद लेने के समान हैं। जिस प्रकार रेडियो, टेलीविजन, मोबाइल, हवाई जहाज आदि के आविष्कार के पूर्व इन्हें लोग ईश्वर का चमत्कार मानते थे, उसी प्रकार कुछ घटनाएं जिन्हें आज आस्थावान लोग ईश्वर का चमत्कार मान रहे हैं, आने वाले समय में यह वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा उतरेंगी। यदि कोई व्यक्ति इन चमत्कारों को आस्था की दृष्टि से देखना प्रारंभ कर देता है, तो उसके मन में विज्ञान के प्रति अविश्वसनीयता घर कर जाती है और माफ करना, वैज्ञानिक होने के नाते मैं यह भूल कभी नहीं करूंगा।

कॉलिंस: हां, मैं यह मान सकता हूं कि आज के चमत्कार कल वैज्ञानिक सिद्धांतों से समझे जा सकेंगे। लेकिन मेरी विज्ञान के प्रति अवधारणा और इसका ज्ञान आप से किसी प्रकार कमतर नहीं है। फर्क केवल इतना है कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को मानकर चलता हूं और आप नहीं।
संवाददाता: क्या आप दोनों किसी निष्कर्ष पर पहुंचे
कॉलिंस: मैं पिछली चौथाई सदी से भी अधिक ईश्वर में आस्था रखने के साथ एक वैज्ञानिक के रूप में कार्य कर रहा हूं। मैंने इतनी बहस में डॉवकिंस और मेरे मध्य सृष्टि के संदर्भ में कही गई बातों में कोई विरोधाभास नहीं पाया। और मैं अभी भी यही कहूंगा कि विज्ञान पूर्णरूपेण सृष्टि को समझने में नाकाम रहा है। लेकिन मैं आशावान हूं कि भविष्य में विज्ञान सृष्टि से जुडे अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर खोज पाएगा। मैं सदैव ‘कैसे हुआ’ की अपेक्षा ‘क्यों हुआ’ में अधिक रूचि रखता हूं और ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार लेने पर मुझे इन सब ‘क्यों हुआ’ प्रश्नों के संतोषपूर्ण उत्तर प्राप्त हो जाते हैं।

डॉवकिन्स: मैं एकदम अडियल प्रकार का नास्तिक नहीं हूं। मैं भी बहुत आशावान हूं कि भविष्य में विज्ञान इतने उच्च स्तर पर विकसित हो जाएगा कि वह सभी प्रकार की आध्यात्मिक मान्यताओं विशेष रूप से ऎतिहासिक पहलुओं को जान पाएगा, जिसकी अभी तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। मैंने बहस की शुरूआत में ब्रह्मांड के निर्माण में ईश्वरीय शक्ति के संदर्भ में जो तर्क दिए थे वह महज औपचारिक ही थे। हालांकि यह तर्क खंडन करने योग्य है लेकिन यह महžवपूर्ण तर्क अवश्य हैं। मेरे विचार से यदि ईश्वर है, तो वह इतना महान और अगम्य है कि जो कुछ तर्क या तथ्य अध्यात्मवादियों द्वारा उसके संदर्भ में दिए जा रहे हैं, बहुत बौने और अर्पयाप्त हैं।

फ्रेंसिस कॉलिन्स, जेनेटिसिस्ट
मेरी दृष्टि में ईश्वर केवल इस ब्ा्रह्मांड का ही नहीं बल्कि समस्त लोक परलोक का मालिक है। चूंकि विज्ञान का दायरा बहुत छोटा है और ईश्वर का अनंत है, इसलिए विज्ञान के द्वारा ईश्वर को पूरी तरह समझ लेना संभव नहीं है।

रिचर्ड डॉवकिन्स, इथोलॉजिस्ट
यदि ईश्वर को सृष्टि में जीवों का निर्माण करना था, तो उसने 10 अरब वर्षों तक क्यों इंतजार किया फिर मानव का निर्माण तो इसके भी चार अरब वर्षों बाद किया। इतने समय तक ईश्वर पूजने और गुणगान करने वाले भक्तों के बगैर कैसे रहा होगा

डॉ. शिव गौतम मनोचिकित्सक
मेरा मानना है कि दुनिया बिना किसी सुपर पावर के नहीं चल सकती। वैज्ञानिकों द्वारा बनाए सुपर से सुपर पावर कंप्यूटर भी फेल हो जाते हैं, लेकिन उस सुपर पावर द्वारा रचित बह्मांड के नियमों में लेश मात्र भी फर्क नहीं आता। इस सुपर पावर को ही हम ईश्वर कहते हैं, और इसका एहसास हर आदमी किसी न किसी रूप में करता है।

डॉ एम के पंडित
भूगर्भ विज्ञानी
करोडो सालों से यह सृष्टि एक खास सिस्टम के मुताबिक चल रही है। तो निश्चित रूप से कोई इसे चलाने वाला तो है ही। आप इसे सुपर नेचुरल पावर, परम सत्ता या फिर ईश्वर कह सकते हैं। दरअसल जहां विज्ञान की पहुंच खत्म होती है,वहां से शुरू होता है ईश्वर को समझना।

डॉ. बसंती लाल बाबेल कानूनविद्
ईश्वर में मेरा अटूट विश्वास है। मेरा मानना है कि अगर ईश्वरीय शक्ति नहीं होती तो शायद व्यक्ति बुरे कार्य करने से नहीं डरता। यह ईश्वरीय शक्ति के दंड का भय है। मैं इसे प्रकृति के दंड के रूप में भी देखता हूं। जब मैं आस्तिक और नास्तिक शब्दों पर विचार करता हूं तो लगता है कि ईश्वर का वजूद है।

डॉ. अशोक गुप्ता
शिशुरोग विशेषज्ञ
इलाज के दौरान हजारों संभावनाओं के बीच हमें एक बीमारी पकडनी होती है। ऎसे में कोई परम शक्ति ही होती है, जो सटीक बीमारी तक पहुंचने में हमारी मदद करती है। बच्चों की चिकित्सा के दौरान नामुमकिन हालात में मैंने कई ऎसे चमत्कार देखे हैं, जिसको देखकर यकीन हो जाता है कि कोई न कोई ऎसी ताकत जरूर है जो इस दुनिया को चला रही है।

डॉ.आर.सी.त्रिवेदी
दर्शनशास्त्री
दुनिया की प्रत्येक जड और चेतन वस्तुओं में एक शक्ति विशेष की उपस्थिति होती है। यही ताकत सृष्टि को एक नियम के अनुसार निरंतर चला रही है। इसी शक्ति का नाम ईश्वर है। जब एक वैज्ञानिक किसी जटिल समस्या की थाह पाने की कोशिश करता है, तो खोजते-खोजते कई और जटिलताएं सामने आ खडी होती हैं। जटिलता भरी यह सृष्टि किसी महान रचनाकार का आभास देती है।

August 7, 2009 Posted by | sunday special | Leave a comment