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रैगिंग में पीछे नहीं युवतियां

पिछले दिनों इलाहाबाद में लडकियों के भी रैगिंग में सम्मिलित होने की खबर छपी। आज जीवन के हर क्षेत्र और हर कार्य में लडकियां, लडकों से आगे रहना चाहती हैं। स्वयं को लडकों से कम नहीं आंकने की मनोवृत्ति आज लडकियों से ऎसा व्यवहार भी करवा रही है, समाज में जिसकी अपेक्षा उनसे नहीं होती। बेटा-बेटी बराबरी के भाव ये गुल खिलाते हैं। लडकियों के आगे आप लडके-लडकी में भेद की बात नहीं कर सकते। वे आपको दकियानूसी विचारधारा का मान बैठेंगी। उन्हें तो लडका ही बनना है। इसलिए पढाई-लिखाई करते हुए जो विकृतियां लडकों में आ रही हैं उनसे लडकियां भी अछूती नहीं। आज घरों में अपने माता-पिता की वर्जनाएं भी लडकियां नहीं मानतीं। दरअसल लडकियों का बाहर जाना, देर रात लौटना, लडके-लडकियों का संग-साथ अब सामान्य होता जा रहा है। ऎसी स्थिति में लडके और लडकियों के व्यवहार में अंतर करना अब मुश्किल हो गया है।

जीवन के हर क्षेत्र में समानता लाने की ललक में हम ऎसा-वैसा बहुत कुछ कर रहे हैं जो अप्राकृतिक है। प्रकृति में विरोधाभासों की भरमार है। विरोधी प्रकृतियों के संयोग से ही सृष्टि चलती है। बराबरी का नारा बडा लुभावना है, परंतु प्रकृति में कुछ भी बराबर नहीं। फिर भी प्रकृति चलती है। हमने जो समाज में वातावरण बनाया है उसमें लडकियां भी रैगिंग में बढ-चढ कर हिस्सा ले रही हैं तो हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। ‘रोपा पेड बबूल का तो आम कहां से होय।’

लडकियों की अनौपचारिक शिक्षा पर पुनर्विचार अनिवार्य है। अनौपचारिक शिक्षा की सूत्रधार तो मां ही होगी। आज की शिक्षा से ‘घर’ गायब है। तात्पर्य यह नहीं कि घर की पूरी जिम्मेदारी औरत पर ही हो, क्योंकि वह भी बाहर जा रही है। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने में वह भी योगदान कर रही है। इसलिए घर के कामकाज की जिम्मेदारी भी मिली-जुली होनी चाहिए, परंतु घर तो स्त्री का ही होगा। आज बडे शहरों में घर गायब हो रहा है। मकान तो है, घर नहीं। दोपहर को हर मकान खाली। रैन-बसेरा बनता जा रहा है घर। घर के खो जाने पर हमारा बहुत कुछ खो जाएगा। बचेगा ही कुछ नहीं।

समय रहते सचेत होने की जरूरत है। बेटियों का विकास अवरूद्ध नहीं करना है। उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में जाने की सुविधाएं देनी हैं। परंतु वह बेटी है, विशेष है, यह भाव भी नहीं छोडना है। यदि हम उसे विशेष मानकर शिक्षा देते हैं तो इंजीनियर, डॉक्टर बनकर भी घर और समाज के लिए विशेष रहेगी। पुरूषों से बराबरी की होड में नहीं भटकेगी। हमारे जमाने में हमारी मां-बहनें हम पर अपनी आंखों से अंकुश रखती थीं। हमने अपनी बेटियों पर वैसा ही अंकुश रखा, पर पोतियों पर नहीं रख सकते। माताएं चिन्तित हैं कि यह क्या हो रहा है घर का नामोनिशान मिट जाने की उन्हें भी चिंता है। बेटी पढने गई थी, पर रैगिंग करते पकडी गई। कॉलेज से निकाली गई। यह सब न हो, इसलिए सचेत होने की जरूरत है। मात्र हमारे कह भर देने से वे उन हरकतों से नहीं बाज आएंगी। उनके मानस की शिक्षा का पाठ्यक्रम हमने बनाया ही नहीं। हम तो मात्र रोटी कमाने की शिक्षा देने में मस्त हैं। पैकेज की गिनती करते हैं, फिर तो देखते चलें, जो होता है।

August 25, 2009 Posted by | Uncategorized | | Leave a comment

परिवार में बदलाव की बयार

संयुक्त परिवार हमारी विरासत है और वर्षो से समाज की ताकत रहे हैं।<ins 12382.jpg लेकिन आज जहां लोग एकल परिवारों में सुख ढूंढ रहे हैं वहां अब यह जानना आवश्यक हो गया है कि क्या वाकई संयुक्त परिवार आज के दौर में हमारी जरूरत हैं या नहीं।

संयुक्त परिवार
यहां प्यार और सम्मान है
संयुक्त परिवारों में एक साथ तीन या तीन से ज्यादा पीढि़यां एक ही छत के नीचे रहती हैं। इनमें दादा-दादी, चाचा-ताऊ, बेटे-बहू, पोते-पोतियां सभी शामिल हैं। समाजशास्त्री सुशीला जैन कहती हैं कि संयुक्त परिवारों में प्यार का दायरा बड़ा होता है। बच्चों को सभी का लाड-प्यार मिलता है। जाहिर है कि उनका मानसिक विकास ज्यादा होगा। परिवार में बड़े-बुजुर्ग होने की वजह से बच्चों में संस्कार जल्दी आ जाते हैं। परिवार में यदि कोई विधवा है, तो उसकी देखभाल केवल संयुक्त परिवार में ही हो सकती है। प्यार और सम्मान बच्चों को यहां बचपन से मिल जाते हैं।

आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया
समाजशाçस्त्रयों के मुताबिक ज्यादातर भारतीय संयुक्त परिवारों में कमाने वाले एक या दो लोग होते हैं। कमाई का साधन आमतौर पर एक कॉमन दुकान, परंपरागत बिजनेस या दुकान या भवन से आने वाला किराया होता है। परिवार का मुखिया प्रत्येक एकल परिवार को उनकी जरूरतों के मुताबिक पैसा देता है और जिम्मेदारियां बांटता है। समाजशास्त्री कहते हैं कि संयुक्त परिवार में खर्चे आमदनी के मुकाबले बहुत ज्यादा होते हैं। फिर हर एक की अपनी महत्वाकांक्षाएं होती हैं। ऎसे में संयुक्त परिवार जल्द ही टूट जाते हैं।

परिवार महत्वपूर्ण
समाज के कई बड़े संयुक्त परिवारों से मिलने पर एक बात सामने आई कि इन परिवारों में व्यक्ति से ज्यादा अहमियत परिवार की होती है। वहां व्यक्तिगत पहचान कोई मुद्दा नहीं होता। परिवार में कुछ बंदिशें होती हैं, जिनका परिवार के सभी सदस्यों को अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। समाजशास्त्री मानते हैं कि बडे़ संयुक्त परिवारों को सही ढंग से चलाने के लिए लोगों को खुद से ज्यादा परिवार को महžवपूर्ण मानना पड़ता है।

आसान नहीं नया घर
यह सच है कि महंगाई के इस दौर में यदि पति-पत्नी दोनों जॉब में हैं, तो नया घर बनाना आसान नहीं है। हालांकि ऋण सुविधाओं ने ये दिक्कतें काफी हद तक कम कर दी हैं, पर एकल परिवारों में रिस्क फेक्टर हमेशा मौजूद रहता है। जाहिर है कि ऎसे में संयुक्त परिवार के साथ रहना ही एकमात्र विकल्प है।

बच्चों का विकास
बच्चों को भविष्य में बेहतर जीवन जीने और सभ्य नागरिक बनने का प्रशिक्षण संयुक्त परिवार में ही मिल सकता है, और यह काम परिवार के वरिष्ठ लोग अपने व्यवहार से कर लेते हैं। बच्चों का यहां जीवन के नैतिक और सामाजिक पक्ष से अच्छी तरह परिचय हो जाता है, पर एकल परिवारों में माता-पिता की व्यस्तताओं की वजह से संस्कार बच्चों को नहीं मिल पाते।
थोड़ा त्याग और सुखी परिवार संयुक्त परिवार की सफलता के लिए एक बात सामान्य रूप से निकलकर आती है, वह है थोड़ा त्याग। क्योंकि जब अहम टकराते हैं, तो परिवार के टूटने में वक्त नहीं लगता। समाजशास्त्री मानते हैं कि संयुक्त परिवार में व्यक्ति खुद की बजाय परिवार को बड़ा मानकर चले, तो परिवार के टूटने की गुंजाइश ही नहीं रहती। इसके लिए वे आपसी सम्मान को तरजीह देते हैं।

एकल परिवार
प्यार तो यहां भी है
पति-पत्नी और बच्चे, ज्यादा से ज्यादा उनके दादा-दादी। एकल परिवार की यही रूपरेखा है। ऎसा नहीं है कि एकल परिवारों में प्यार का कोई अभाव पाया जाता है, पर यह बहुत सीमित होता है। एकल परिवारों में बच्चों को सीखाने वाले केवल उनके माता-पिता होते हैं। और यदि पति-पत्नी दोने की जॉब में हों, जैसा ही आजकल पाया जाता है, तो बच्चों को प्यार नसीब नहीं हो पाता।

कमाई भी, सुविधाएं भी
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि आज की पीढ़ी के हरेक युवा की यह नैसर्गिक महžवाकांक्षा होती है कि उनका खुद का घर और गाड़ी हो। वह अपने कमाए पैसों को सिर्फ अपने और अपने परिवार पर खर्च करें। यह सच है कि एकल परिवारों में बच्चों को अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और कपड़े उपलब्ध हो जाते हैं। जाहिर तौर पर एक मघ्यम संयुक्त परिवार में यह संभव नहीं है। समाजशास्त्री सुशीला जैन कहती है कि ऋण सुविधाओं की वजह से सारी सुविधाएं जुटाना अब काफी आसान हो गया है। पर एकल परिवार में यदि पति-पत्नी में से किसी एक की असामयिक मौत हो जाए, तो पूरा परिवार लगभग खत्म हो जाता है। इसलिए यहां असुरक्षा का तžव ज्यादा होता है।

चिंता इमेज की
संयुक्त परिवारों के टूटने की एक बड़ी वजह समाजशास्त्री पर्सनल इगो को मानते हैं। वे कहते हंैं कि आज की पिज्जा-बर्गर जिंदगी में नई पीढ़ी के उसूलों की बातें बेमानी हैं। वे अपनी तरह से जिंदगी जीना चाहते हैं, जहां उनकी भी कोई पहचान हो। नाइट क्लब, डांस पार्टी और आधुनिक जीवन शैली उनकी जिंदगी का हिस्सा है, और उन्हें लगता है कि परिवार से अलग रहकर ही वे इन सारी चीजों को बेहतर ढंग से एंजॉय कर सकते हैं।

कम लोग, कम समस्याएं
आमतौर पर एकल परिवारों का कॉन्सेप्ट है-कम लोग, कम समस्याएं। व्यक्तिगत जरूरतों, प्राइवेसी और महžवाकांक्षाओं के चलते एकल परिवारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। मनोविश्लेषक मानते हैं कि शादी के बाद व्यक्ति की मनोदशा काफी बदल जाती है और वह शादी के कुछ वर्षो तक निहायत निजी जिंदगी जीना चाहता है। इसके लिए वह अपने परिवार से अलग होना बेहतर मानता है।

अच्छे अवसर
स्वाभाविक रूप से बढ़ते एकल परिवारों की एक बड़ी वजह है, बेहतर नौकरियां। उदारीकरण के बाद नौकरी के अवसरों में वृद्धि हुई है। युवा नौकरी के लिए अपने परिवारों को छोड़कर दूर-दराज शहरों में बसने लगे हैं। ऎसे में नया एकल परिवार बनना स्वाभाविक सी बात है। इसके साथ एक बात यह भी सामने आई है कि पुराने लोग अपनी पैतृक जगह को छोड़ कर अपने बेटों के साथ रहना भी नहीं चाहते।

सोच का टकराव
संयुक्त परिवार में तीन पीढि़यां एक साथ रहती हैं। जाहिर है कि नई और पुरानी पीढ़ी के बीच सोच के कई वर्षो का अंतर होता है। लिहाजा आपस में सोच का टकराव होता है। इस कारण भी कई दफा परिवारों में विभाजन हो जाता है। हालांकि अब काफी हद तक पुरानी पीढ़ी के लोगों ने नए जमाने की बातों को अपना लिया है, और इन सभी बदलावों को वे सहज रूप मे लेने लगे हैं।

यह भी है ट्रेंड
ऎसा नहीं है कि एकल परिवार बनने की वजह सिर्फ संयुक्त परिवारों में तनाव या और कोई बात है। आजकल एक ही परिवार के लोगों में एक ही शहर में राजी खुशी से अलग-अलग रहने का भी प्रचलन बढ़ा है। ऎसे मामलों में माता-पिता और बेटों के बीच यह सहमति हो जाती है कि वे एक-दूसरे की जिंदगी में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। आज के दौर को देखते हुए माता-पिता और बेटे-बहू अपने-अपने मुताबिक जिंदगी जीना चाहते हैं और उन्हें एक-दूसरे से कोई शिकायत भी नहीं रहती। जरूरत के वक्त वे एक-दूसरे की मदद भी करते हैं।

बढ़ते तलाक के मामले
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि एकल परिवारों में पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों पर अहम टकराने लगते हैं। उनके बीच के मनमुटाव को दूर करने के लिए उनके पास कोई तीसरा व्यक्ति नहीं होता है। अक्सर ऎसे मामलों में तलाक की नौबत आ जाती है। जानकार मानते है कि तलाक के ज्यादातर मामले एकल परिवारों से आते हैं। इसके अलावा आत्महत्या और मानसिक अवसाद से जुड़े ज्यादातर मामले भी एकल परिवारों की देन हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेले रहने वाले व्यक्ति हमेशा एक अज्ञात डर से भयभीत रहते हैं और कई बार यह डर इतना बढ़ जाता है कि नतीजा आत्महत्या के रूप में सामने आता है।

August 24, 2009 Posted by | Uncategorized | Leave a comment

फिल्म में काम करेंगे कलाम

नई दिल्ली। पूर्व राष्ट्रपति और देश के मिसाइल कार्यक्रम के जनक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जल्द ही एक हिन्दी फिल्म में अभिनय करते दिखाई देंगे। खास बात यह है कि डॉ. कलाम जिस फिल्म में काम कर रहे हैं उसका नाम है ‘मैं कलाम हूं’। वे इस फिल्म में अपना ही किरदार निभा रहे हैं। इस फिल्म में मुख्य किरदार राजस्थान के रहने वाले स्लम बस्ती के एक बच्चे ने निभाया है।

फिल्म में यह बच्चा डॉ. कलाम से प्रेरणा पाकर बडे सपने देखने का साहस करता है। फिल्म में हिन्दी फिल्मों के जाने-माने अभिनेता गुलशन ग्रोवर भी काम कर रहे हैं। फ्रांसीसी अभिनेत्री सोफी ब्रौसटेल ने भी इसमें एक अहम भूमिका निभाई है। फिल्म का निर्माण स्माइल फाउण्डेशन ने किया है और इसके निर्देशक हैं माधव पाण्ड्या। इसका प्रीमियर कान फिल्मोत्सव में किया जाएगा, जिसके बाद इसे दुनिया के अन्य फिल्मोत्सवों में दिखाया जाएगा।

August 10, 2009 Posted by | Uncategorized | , | Leave a comment